पेसा अधिनियम 1996

पेसा अधिनियम 1996

संदर्भ: छत्तीसगढ़ सरकार द्बारा ‘पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम’ (Panchayats (Extension to Scheduled Areas) Act – PESA Act) या ‘पेसा अधिनियम’ के तहत ‘PESA नियमावली’, 2022 (PESA Rules 2022) को लागू किया गया है। इसके अलावा, हाल ही में एक राजनीतिक दल ने आदिवासियों के लिए छह सूत्री “गारंटी” का अनावरण किया, जिसमें ‘पेसा अधिनियम’ का “सख्त कार्यान्वयन” करना शामिल है।

(नोट: पेसा अधिनियम पर अलग से नोट बना लें, यह प्रीलिम्स और मेन्स दोनों के लिए महत्वपूर्ण टॉपिक है।)

PESA नियमावली’ 2022 के बारे में:

छत्तीसगढ़ के PESA नियमों में कहा गया है, कि ग्राम सभा के 50% सदस्य आदिवासी समुदायों से होंगे, जिनमें से 25% सदस्य महिलाएं होंगी।

  • ‘पेसा अधिनियम’ के लागू होने के लिए, राज्यों द्वारा नियम बनाया जाना आवश्यक होता है।
  • वस्तुस्थिति: 5वीं अनुसूची क्षेत्रों को अधिसूचित करने वाले 10 राज्यों (आंध्र, तेलंगाना, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा और राजस्थान) में से, केवल 7 राज्यों (छत्तीसगढ़ और गुजरात सहित) ने ‘PESA अधिनियम’ लागू करने के लिए नियम अधिसूचित किए हैं।
  • छठी अनुसूची में शामिल राज्य हैं: ‘असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम’ (इनको ‘AMTM’ के रूप में याद रखा जा सकता है।)

‘पेसा अधिनियम, 1996 के बारे में:

‘पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996’ या ‘पेसा अधिनियम’ भारत के अनुसूचित क्षेत्रों में रहने वाली आबादी के लिए, पारंपरिक ग्राम सभाओं के माध्यम से, स्वशासन सुनिश्चित करने के लिए भारत सरकार द्वारा अधिनियमित एक कानून है।

  • यह क़ानून 1996 में संसद द्वारा अधिनियमित किया गया था और 24 दिसंबर 1996 को लागू हुआ था।
  • ‘पेसा अधिनियम’ को भारत में आदिवासी कानून की रीढ़ माना जाता है।
  • इस क़ानून के तहत, निर्णय लेने की प्रक्रिया की पारंपरिक प्रणाली को मान्यता दी गयी है और और लोगों की स्वशासन की भागीदारी सुनिश्चित की गयी है।

पृष्ठभूमि:

ग्रामीण भारत में स्थानीय स्वशासन को बढ़ावा देने हेतु, वर्ष 1992 में 73वां संविधान संशोधन किया गया। इस संशोधन के माध्यम से त्रिस्तरीय पंचायती राज संस्था को एक कानून बनाया गया।

  • हालांकि, अनुच्छेद 243 (M) के तहत अनुसूचित और आदिवासी क्षेत्रों में इस कानून को लागू करना प्रतिबंधित था।
  • वर्ष 1995 में ‘भूरिया समिति’ की सिफारिशों के बाद, भारत के अनुसूचित क्षेत्रों में रहने वाली आबादी के लिये स्व-शासन सुनिश्चित करने हेतु ‘पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम,1996 लागू किया गया।
  • 1995 में भूरिया समिति की सिफारिशों के बाद, भारत के अनुसूचित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए आदिवासी स्व-शासन सुनिश्चित करने के लिए अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत विस्तार (पेसा) अधिनियम 1996 अस्तित्व में आया।
  • PESA क़ानून के तहत, ग्राम सभा को पूर्ण शक्तियाँ प्रदान की गयी है, जबकि राज्य विधायिका को पंचायतों और ग्राम सभाओं के समुचित कार्य को सुनिश्चित करने के लिए एक सलाहकार की भूमिका दी गई है।
  • ग्राम सभा को प्रत्यायोजित शक्तियों में, किसी उच्च स्तर की संस्था के द्वारा कटौती नहीं की जा सकती है, और इन्हें अपने निर्धारित कार्य करने की पूरी स्वतंत्रता रहेगी।

ग्राम सभाओं को दी गई शक्तियाँ और कार्य:

  1. भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और विस्थापित व्यक्तियों के पुनर्वास में अनिवार्य परामर्श का अधिकार;
  2. पारंपरिक आस्था और आदिवासी समुदायों की संस्कृति का संरक्षण;
  3. लघु वन उत्पादों पर स्वामित्व;
  4. स्थानीय विवादों का समाधान;
  5. भूमि अलगाव की रोकथाम;
  6. ग्रामीण बाजारों का प्रबंधन;
  7. शराब के उत्पादन, आसवन और निषेध को नियंत्रित करने का अधिकार;
  8. साहूकारों पर नियंत्रण का अधिकार;
  9. अनुसूचित जनजातियों से संबंधित अन्य अधिकार;

लघु वनोपज: लघु वनोपज को ‘वन अधिकार अधिनियम’, 2006 के तहत परिभाषित किया गया है, इसमें बांस, ब्रशवुड, स्टंप, बेंत, तुसर आदि सहित पादप-उत्पत्ति के सभी गैर-इमारती वन उत्पाद शामिल हैं।

PESA क़ानून से संबंधित मुद्दे:

राज्य सरकारों से अपेक्षा की जाती है, कि वे ‘पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, एक राष्ट्रीय कानून, के अनुरूप अपने अनुसूचित क्षेत्रों के लिये राज्य स्तर पर कानून बनाएँ। इसके परिणामस्वरूप राज्यों में PESA क़ानून का आंशिक रूप से कार्यान्वयन हुआ है।

  • इस आंशिक कार्यान्वयन की वजह से आदिवासी क्षेत्रों में, जैसे- झारखंड में, स्वशासन व्यवस्था खराब हुई है।
  • कई विशेषज्ञों का दावा है, कि ‘स्पष्टता की कमी, कानूनी दुर्बलता, नौकरशाही की उदासीनता, राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी, सत्ता के पदानुक्रम में परिवर्तन के प्रतिरोध आदि के कारण, PESA क़ानून सफल नहीं हो सका है।
  • राज्य भर में किये गए सोशल ऑडिट से पता चला है, कि विभिन्न विकास योजनाओं को ग्राम सभा द्वारा केवल कागज़ पर अनुमोदित किया जा रहा था और वास्तव में चर्चा और निर्णय लेने के लिये कोई बैठक नहीं हुई थी।